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डागडर बाबू
डागडर बाबू
प्रकाशक :
राजकमल प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2012 |
पृष्ठ :244
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 9513
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आईएसबीएन :9788126721856 |
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326 पाठक हैं
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
धन्वन्तरि की सन्तानें
यह सन् 1764 की बात है। समूची दुनिया मध्यकाल की घनी काली रात में डूबी हुई थी। लेकिन ज्ञान के नन्हे-नन्हे सूरज कहीं-कहीं खिलने लगे थे। फ्रांसीसी दर्शनशास्त्री फ्रैंसुआ मारी अरूए ड वोल्तियर इसी युग की देन थे। डॉक्टरों के पति अपने भाव प्रकट करते हुए इस प्रबुद्ध विचारक ने लिखा था -
‘‘ऐसे लोग जो अपनी निपुणता और सहृदयता से ऊर्जित होकर जीवन-पर्यन्त दूसरे लोगों के स्वास्थ्य को पुनः प्रतिष्ठित करने में जुटे रहते हैं, उनका स्थान इस धरती पर जन्म लेनेवाली महान हस्तियों से भी अधिक विशाल है। सच्चे मायने से उनका दर्जा तो ईश्वरीय है, चूँकि किसी की रक्षा करना, नया जीवन देना उतना ही उत्कृष्ट कृत्य है जितना कि उसकी रचना करना।’’
धरती पर जब ते आदमी ने सभ्यता के पहले बीज रोपे, कुटुम्ब और कबीलों की रचना हुई, समाज के नीति शास्त्र के पहले नियम रचे गए, सामाजिक जटिलताओं, नैतिकता एवं सदाचार की व्याख्या हुई और जीवन को बेहतर वनाने की दिशा में मनुष्य अग्रसर हुआ, तभी से कुछ लोगों ने यह दायित्व अपने सिर ले लिया कि कबीले में दूसरों के बीमार होने पर वे उसकी जीवन-रक्षा में जुट जाते। ओझा-सयाने, वैद्य-हकीम, डॉक्टर या व्यापक स्तर पर कहा जाए, चिकित्सक समुदाय की स्थापना इसी पुण्य सोच के तहत हुई। समाज ने उन्हें सदा आदर और मान-सम्मान का दर्जा दिया, लेकिन साथ ही साथ उन पर कड़ी आलोचनात्मक दृष्टि रखी।
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